"मोक्ष धाम - गया तीर्थ"
"मोक्ष धाम - गया तीर्थ"
!! श्री हरिदास !!
वैज्ञानिक युग में भी पितृपक्ष और गया का महत्व
प्राकृतिक सौंदर्य – सुषमा से आच्छादित, सात पर्वत मालाओं से घिरा, निरंजना उद्गमित अन्तः सलिला ‘फल्गु नदी‘ के पष्चिमी छोर पर बसा अति प्राचीन एवं धार्मिक शहर ‘गया‘ भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है । श्राद्ध एवं पिण्डदान के लिये प्रसिद्ध गया वेदों के अनुसार भारत की सप्त प्रमुख पुरियों में अपना एक अलग स्थान रखता है । पुराण के अनुसार यह एक मुक्तिप्रद तीर्थ स्थल है । यहॉ प्रत्येक वर्ष भाद्र पक्ष की चतुदर्षी से आष्विन पक्ष की अमावस्या पर सत्तरह दिनों का पितृपक्ष मेला लगता है । इसे पितृपक्ष या पितरों का पक्ष (पखवारा) भी कहा जाता है । इस अवसर पर देष-विदेष के लाखों हिन्दू धर्मावलम्बी अपने पूर्वजों के नाम श्राद्ध, वर्तण एवं पिण्डदान करने के लिये यहॉ आते है । ऐसी मान्यता है कि इस पुण्य क्षेत्र में पिता का श्राद्ध करके पुत्र अपने पितृऋण से हमेषा-हमेषा के लिये उऋण हो जाता है । उनके द्वारा किये गये इस पवित्र कार्य से उनके पूर्वजों की भटकती आत्मा को शान्ति मिलती है । वे प्रेतत्व से मुक्त हो जाते हैं । साथ ही पितरों की प्रसन्नता से श्राद्धकर्ता को भविष्य में धन-धान्य और सुख-समृद्धि व सम्पत्ति की प्राप्ति होती है ।
इतिहास साक्षी है कभी यहॉ तीन सौ पैंसठ वेदियॉ थी जिस पर हिन्दू तीर्थ यात्रियों द्वारा प्रतिदिन पिण्डदान करने का विधान था । तब उस समय लोगों के पास भी समय सीमा की कोई बाध्यता नहीं थी । पूरी निष्चिंतता एवं इत्मीनान के साथ वे यह कार्य सम्पादित करते थे ।
परम्परा के यहॉ पिण्डदान करने-कराने का भार यहॉ के गयापाल पंडों के ऊपर रहा है । शास्त्र के अनुसार गया के ये आदि ब्राह्मण श्राद्धकर्म के लिये अत्यंत ही पूज्य माने जाते हैं तथा बिना इनकी उपस्थिति एवं सहायता के यात्रियों को गया श्राद्ध की पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती है । यह गयापाल पण्डे यात्रियों को अपने यहॉ वर्षो पूर्व बने आवासों में ठहराते हैं । बाहर से आने वाले यात्रीगण भी अपनी तत्सम्बन्धी सुविधा को देखते हुए उनके संरक्षण में ही रहना ज्यादा उचित समझते हैं किन्तु वर्षो पुरानी यह परम्परा आज पूरी तरह दम तोड़ने लगी है । यही वजह है कि इन अव्यवस्थाओं के मद्देनजर पिछले तीन-चार वर्षो से स्थानीय प्रषासन ने यह भार स्वयं ही यात्रियों के हित में उठाना शुरु कर दिया है । यहॉ की विभिन्न धर्मषालाओं में भी यात्रियों के ठहरने की उचित व्यवस्था है । यहॉ की इन धर्मषालाओं का भी यत्किचित इतिहास रहा है । इन धर्मषालाओं के निर्माण के पीछे कुछ प्रवासी सेठ साहुकारों का सराहनीय योगदान रहा है । आज भी ये धर्मषालाएॅ उन सेठ-साहुकारों की धार्मिक भावना का अप्रतिम उदाहरण है ।
*भारतदेश में कई सिद्ध और प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है और *सबके*अपने अपने महत्व है* *लेकिन*गया तीर्थ का महत्व सबसे सर्वोच्च श्रेणी का हे, क्यू की गया तीर्थ की यात्रा और एक दिन के पिण्ड-श्राद्ध कर्म मात्र से पुत्र प्राप्ति सहित नाना प्रकार के सुख वैभव के द्वार खुल जाते हे, क्यू कि गया तीर्थ आत्माओं की मुक्ति का परम पावन तीर्थ है। विष्णु पुराण – पद्म पुराण – वायु पुराण में गया तीर्थ और तीर्थ में किये गए श्राद्ध कर्म के आशीर्वाद का अपना विशेष महत्व हे, गया तीर्थ श्राद्ध करवाने मात्र से जीवन में उन्नती के कई प्रामाणिक उदाहरण है, लेकिन आधुनिकता के बढ़ते प्रचलन के चलते इंसान सुख से दुःख की और अनायास ही बढ़ चुका है।*
सीता कुंड



विष्णु पद






दिनाक 10 नवंबर 2019 से
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अक्षय वट


फल्गु नदी




वैज्ञानिक युग में भी पितृपक्ष और गया का महत्व
प्राकृतिक सौंदर्य – सुषमा से आच्छादित, सात पर्वत मालाओं से घिरा, निरंजना उद्गमित अन्तः सलिला ‘फल्गु नदी‘ के पष्चिमी छोर पर बसा अति प्राचीन एवं धार्मिक शहर ‘गया‘ भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है । श्राद्ध एवं पिण्डदान के लिये प्रसिद्ध गया वेदों के अनुसार भारत की सप्त प्रमुख पुरियों में अपना एक अलग स्थान रखता है ।
विष्व प्रसिद्ध विष्णुपद मन्दिर
गया का प्रसिद्ध विष्णुपद मन्दिरस्थापित्य कला का उत्कृष्ट नमूना है, जिसका पुनरोद्धार एवं निर्माण कार्य इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया था । अहिल्याबाई भारतीय इतिहास की एक अनमोल रत्न थी, जो एक उज्जवल नक्षत्र की तरह आकाष में वर्षो तक चमकती रहेगी । वे गंगा-जमुना की तरह पवित्र और सीता-सावित्री की तरह पूज्य थीं । इनकी गिनती भारत की उन प्रसिद्ध नारियों में की जाती हैं जिन्होंने प्रजा पर नहीं, बल्कि उनके ह्नदय पर एक महान माता के समान वात्सल्यमय शासन किया है । भूरे रंग के पत्थर से निर्मित इस मन्दिर को बनवाने के लिये अहिल्याबाई ने जयपुर के प्रसिद्ध प्रस्तर स्थापित्यकारों को बुलवाया था । इस मन्दिर में भगवान विष्णु के चरण चिह्न हैं ।
श्राद्ध, तर्पण और गया श्राद्ध
कर्मफल सिद्धान्त के अनुसार कुल चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ योनि मानी गयी है । मनुष्य योनि पाने के बाद आत्मा का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति ही है । शास्त्रों में जैसा कि उल्लेख है, उसके अनुसार मनुष्य योनि में जन्म लेकर व्यक्ति अगर कोई शुभ सत्कार्य नहीं करता है, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है । तभी तो महात्मा भगीरथ ने जब षिव के जटाजूट में समायी माता गंगा को इस पृथ्वी पर काफी सहजता के साथ उतारा था, तो सृष्टिनियन्ता ब्रह्मा ने उनके निकट आकर उनके द्वारा किये गये इस महत्वपूर्ण कार्य को सगर के साठ हजार पुत्रों के उद्धार और उन्हें उपकृत किये जाने की बात स्वीकार की थी लेकिन वहीं उन्होंने यह स्पष्ट निर्देष भी दिया था कि गंगा के उस पवित्र जल से अब वे अपने पूर्वजों का तर्पण भी करें तथी उनकी सार्थकता सिद्ध होगी ।
पितरों को अक्षय-तृप्ति देती है फल्गु
गया श्राद्ध, तर्पण एवं पिण्डदान की महत्वपूर्ण स्थली रही है, जिसमें फल्गु नदी (तीर्थ) का अवस्मिरणीय योगदान को नकारा नहीं जा सकता ं किसी भी देष के इतिहास विनिर्माण का प्रकृति प्रदत्त उपहारों के अन्तर्गत प्रथम स्थान पर आसीन नदी का अमूल्य योगदान माना जाता हे ं मानव के आरम्भि क्रिया-कलाप के हजारों वर्षो काएकमात्र प्रमुख सहायक तत्व एक रुप में नदी से जुड़ी लौकिक-अलौकिक कथाएँ प्रायः एकमत से स्वीकार्य हैं । प्राचीन नदी घाटी सभ्यता में प्रारम्भिक मानव बस्तियों का स्थापन और विकास इस तथ्य को सम्पुष्ट करता है । सही अर्थो में किसी भी नगर का महत्व नदी तटों पर अव्यवस्थित होने के कारण अन्य नगरों से द्विगुणितमाना जाता है, ऐसी ही एक विष्वविष्यात नदी (तीर्थ) है – ‘फल्गु‘ ।
श्री गया माहत्म्य कथा
सूतजी शौनकजी से बोले कि एक समय नारदजी शौनकादि ऋषियों के साथ सनत्कुमार के पास गये और प्रणाम करके पूछा कि हे सनत्कुमारजी ! कोई ऐसे तीर्थ की कथा सुनाइये जो मुक्ति दायक हो जिसका माहात्म्य सुनने से मुक्ति प्राप्त हो, तब सनत्कुमार जी बोले हे नारद/ ऐसा तीर्थ तो गया ही है, ऐसा पवित्र भूमि है कि यहॉ श्राद्ध और पिण्डदान करने से मुक्ति प्राप्त होती है । एक समय गयासुर नामक दैत्य बड़ा बली उत्पन्न हुआ । उसके ऊपर ब्रह्माजी ने धर्मषिला रखकर यज्ञ किया । इस षिला के अचल होने के निमित्त विष्णु भगवान गदाधर नाम से गदा लेकर उपस्थित हुए और सब देवता फल्गु का स्वरुप धारण करके आ विराजे । ब्रह्मा ने यज्ञ करके ब्राह्माणों को गुह रत्न, स्वर्ण आदि दान दिया । तभी से यह पुरी पवित्र हो गयी । यही पितर सदैव वास करते हैं और हर दम यही आषा करते हैं कि हमारे कुल में कोई ऐसा उत्पन्न हो जो यहॉ आकर पिण्ड दे जिससे हम लोगों की मुक्ति हो । गया में पुत्र के जाने और फल्गु नदी में स्पर्ष करने मात्र से पितर लोग स्वर्ग लोक चले जाते हैं । गया क्षेत्र में में अपने निमित्त बिना तिल का पिण्डदान देने से ब्रह्महत्या, सुरा-पान इत्यादि घोर पापों से मुक्ति मिलती है । गया में जान-पहचान वाले मृत मनुष्य का नाम लेकर पिण्डदान देने से उसकी भी मुक्ति होती है । गया में पिण्डदान करने से कोटि तीर्थ और अष्वमेध यज्ञादि का फल मिलता है । गया में श्राद्ध करने वाले को किसी काल का विचार नहीं करना चाहिये । गया में मृत्यु होने से मुक्ति होती है क्यों कि यहयभी सव्तपुरी में से एक पुरी है । गया में ब्राह्मण भोजन कराने से पितर लोगों को तृप्ति मिलती है । गया में मुण्डन कराने से सकुल बैकुण्ठ को जाते है । गया में जाकर विष्णु की भगवान (गदाधर) का स्मरण कर पितरों का आह्मन कर श्रद्धायुक्त होकर श्राद्ध करें । गया में श्राद्ध करते देखकर पितर कहीं भी होने पर झट गया में पहुॅच जाते है । गया में पिण्डदान करने के निमित जाकर काम, क्रोध को त्याग देवें । गया क्षेत्र में सब जग तीर्थ विराजमान हैं । इससे गया क्षेत्र सब तीर्थे से श्रेष्ठ सब जगह तीर्थ विराजमान हैं । इससे गया क्षेत्र सब तीर्थो से श्रेष्ठ गिना जाता है । जो मनुष्य मीन, मेष, कन्या, धनु, कुम्भ, मकर में सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण में तथा सोमवती अमावस्या को पिण्डदान करता है उसको महान पुण्य होता है । जिसमें कन्या के सूर्य में पिण्डदान करने का बड़ा माहात्म्य है ।