हरिद्वार
हरिद्वार का अपना विशेष धार्मिक आस्था के साथ मनुष्य के मरणोपरांत आत्मा की गति से भी हे। महाभारत काल में हरिद्वार को ‘गंगाद्वार’ कहा गया है। पुराणों में इसे “गंगाद्वार” “मायाक्षेत्र” “मायातीर्थ”, “सप्तस्रोत” तथा “कुब्जाम्रक” के नाम से वर्णित है। प्राचीन काल में कपिल मुनि के नाम पर इसे ‘कपिला’ भी कहा जाता था, यहाँ कपिल मुनि का तपोवन था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार भगीरथ ने, जो सूर्यवंशी राजा सगर के प्रपौत्र (श्रीराम के एक पूर्वज) थे, श्री गंगाजी को सतयुग में वर्षों की तपस्या के पश्चात् अपने ६०,००० पूर्वजों के उद्धार और कपिल ऋषि के शाप से मुक्त करने के लिए के लिए पृथ्वी पर लाया गया था। ‘हरिद्वार’ नाम का संभवतः प्रथम प्रयोग पद्मपुराण में हुआ है। पद्मपुराण के उत्तर खंड में गंगा-अवतरण के उपरोक्त प्रसंग में हरिद्वार की अत्यधिक प्रशंसा करते हुए उसके सर्वश्रेष्ठ तीर्थ होने की बात कही गयी है:-
हरिद्वारे यदा याता विष्णुपादोदकी तदा।
तदेव तीर्थं प्रवरं देवानामपि दुर्लभम्।।
तत्तीर्थे च नरः स्नात्वा हरिं दृष्ट्वा विशेषतः।
प्रदक्षिणं ये कुर्वन्ति न चैते दुःखभागिनः।।
तीर्थानां प्रवरं तीर्थं चतुर्वर्गप्रदायकम्।
कलौ धर्मकरं पुंसां मोक्षदं चार्थदं तथा।।
यत्र गंगा महारम्या नित्यं वहति निर्मला।
एतत्कथानकं पुण्यं हरिद्वाराख्यामुत्तमम्।।
उक्तं च शृण्वतां पुंसां फलं भवति शाश्वतम्।
अश्वमेधे कृते यागे गोसहस्रे तथैव च।।
अर्थात् भगवान विष्णु के चरणों से प्रकट हुई गंगा जब हरिद्वार में आयी, तब वह देवताओं के लिए भी दुर्लभ श्रेष्ठ तीर्थ बन गया। जो मनुष्य उस तीर्थ में स्नान तथा विशेष रूप से श्रीहरि के दर्शन करके उन की परिक्रमा करते हैं वह दुःख के भागी नहीं होते। वह समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाला है। जहां अतीव रमणीय तथा निर्मल गंगा जी नित्य प्रवाहित होती हैं उस हरिद्वार के पुण्यदायक उत्तम आख्यान को कहने सुनने वाला पुरुष सहस्त्रों गोदान तथा अश्वमेध यज्ञ करने के शाश्वत फल को प्राप्त करता है।
महाभारत के वनपर्व में देवर्षि नारद ‘भीष्म-पुलस्त्य संवाद’ के रूप में युधिष्ठिर को भारतवर्ष के तीर्थ स्थलों के बारे में बताते है जहाँ पर गंगाद्वार अर्थात् हरिद्वार और कनखल के तीर्थों का भी उल्लेख किया गया है। महाभारत में गंगाद्वार (हरिद्वार) को निःसन्दिग्ध रूप से स्वर्गद्वार के समान बताया गया है:-
स्वर्गद्वारेण यत् तुल्यं गंगाद्वारं न संशयः।
तत्राभिषेकं कुर्वीत कोटितीर्थे समाहितः।।
पुण्डरीकमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्।
उष्यैकां रजनीं तत्र गोसहस्त्रफलं लभेत्।।
सप्तगंगे त्रिगंगे च शक्रावर्ते च तर्पयन्।
देवान् पितृंश्च विधिवत् पुण्ये लोके महीयते।।
ततः कनखले स्नात्वा त्रिरात्रोपोषितो नरः।
अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति।।
अर्थात् गंगाद्वार (हरिद्वार) स्वर्गद्वार के समान है; इसमें संशय नहीं है। वहाँ एकाग्रचित्त होकर कोटितीर्थ में स्नान करना चाहिए। ऐसा करने वाला मनुष्य पुण्डरीकयज्ञ का फल पाता और अपने कुल का उद्धार कर देता है। वहाँ एक रात निवास करने से सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। सप्तगंग, त्रिगंग, और शक्रावर्त तीर्थ में विधिपूर्वक देवताओं तथा पितरों का तर्पण करने वाला मनुष्य पुण्य लोक में प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर कनखल में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता और स्वर्ग लोक में जाता है।
यह स्थान बड़ा रमणीक है और यहाँ की गंगा हिन्दुओं द्वारा बहुत पवित्र मानी जाती है। कतिपय प्रमुख पुराणों में हरिद्वार, प्रयाग तथा गंगासागर में गंगा की सर्वाधिक महिमा बतायी गयी है:-
सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा।
गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।
तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः।।
अर्थात् गंगा सर्वत्र तो सुलभ है परंतु गंगाद्वार प्रयाग और गंगासागर-संगम में दुर्लभ मानी गयी है। इन स्थानों पर स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग लोक को चले जाते हैं और जो यहां शरीर त्याग करते हैं उनका तो पुनर्जन्म होता ही नहीं अर्थात् वे मुक्त हो जाते हैं।
ह्वेनसांग भी सातवीं शताब्दी में हरिद्वार आया था और इसका वर्णन उसने ‘मोन्यु-लो’ नाम से किया है। मोन्यू-लो को आधुनिक मायापुरी गाँव समझा जाता है जो हरिद्वार के निकट में ही है। प्राचीन किलों और मंदिरों के अनेक खंडहर यहाँ विद्यमान हैं।
हरिद्वार में ‘हर की पैड़ी’ के निकट जो सबसे प्राचीन आवासीय प्रमाण मिले हैं उनमें कुछ महात्माओं के साधना स्थल, गुफाएँ और छिटफुट मठ-मंदिर हैं। भर्तृहरि की गुफा और नाथों का दलीचा पर्याप्त प्राचीन स्थल माने जाते हैं। उसके पश्चात सवाई राजा मानसिंह द्वारा बनवाई गयी छतरी, जिसमें उनकी समाधि भी बतायी जाती है, वर्तमान हर की पैड़ी, ब्रह्मकुंड के बीचोंबीच स्थित है। यह छतरी निर्मित ऐतिहासिक भवनों में इस क्षेत्र का सबसे प्राचीन निर्माण माना जाता है। इसके बाद इसकी मरम्मत वगैरह होती रही है। उसके बाद से विगत लगभग तीन सौ – साढ़े तीन सौ वर्षों से यहां गंगा के किनारे मठ-मंदिर, धर्मशाला और कुछ राजभवनों के निर्माण की प्रक्रिया शुरु हुई। वर्तमान में हर की पैड़ी विस्तार योजना के अंतर्गत जम्मू और पुंछ हाउस और आनंद भवन तोड़ दिए गए हैं। उनके स्थान पर घाट और प्लेटफार्म विस्तृत कर बनाये गये हैं। इस प्रकार हरिद्वार में नगर-निर्माण की प्रक्रिया आज से प्रायः साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई; किंतु तीर्थ के रूप में यह अत्यंत प्राचीन स्थल है। पहले यहाँ पर पंडे-पुरोहित दिनभर यात्रियों को तीर्थों में पूजा और कर्मकांड इत्यादि कराते थे अथवा स्वयं पूजा-अनुष्ठान इत्यादि करते थे तथा सूरज छिपने से पूर्व ही वहाँ से लौट कर अपने-अपने आवासों को चले जाते थे। उनके आवास निकट के कस्बों कनखल, ज्वालापुर इत्यादि में थे।
यहाँ का प्रसिद्ध स्थान ‘हर की पैड़ी’ है जहाँ गंगा मैया का मंदिर भी है। पवित्र हर की पैड़ी पर लाखों यात्री स्नान करते हैं और यहाँ का पवित्र गंगा जल देश के प्राय: सभी स्थानो में यात्रियों द्वारा ले जाया जाता है। प्रति वर्ष चैत्र में मेष संक्रांति के समय मेला लगता है जिसमें लाखों यात्री इकट्ठे होते हैं। प्रति बारह वर्षों पर जब सूर्य और चंद्र मेष राशि में और बृहस्पति कुंभ राशि में स्थित होते हैं तब यहां कुंभ का मेला लगता है। उसके छठे वर्ष अर्धकुंभ का मेला भी लगता है। इनमें कई लाख यात्री इकट्ठे होते और गंगा में स्नान करते हैं। यहाँ अनेक मंदिर और देवस्थल हैं। माया देवी का मंदिर पत्थर का बना हुआ है। संभवत: यह १०वीं शताब्दी का बना होगा। इस मंदिर में माया देवी की मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति के तीन मस्तक और चार हाथ हैं।
धार्मिक मान्यता है कि यहाँ मरनेवाला प्राणी परमपद पाता है और स्नान से जन्म-जन्मांतर का पाप कट जाता है और परलोक में हरिपद की प्राप्ति होती है। बशर्ते कर्मो का हिसाब होते समय ज्यादा बद्दुआए या पाप कर्म वाला प्राणी नहीं हो।
हरिद्वार स्वर्ग जैसा सुन्दर है। हरिद्वार भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक बहुरूपदर्शन प्रस्तुत करता है। यह चार धाम यात्रा के लिए प्रवेश द्वार भी है !
उत्तराखंड के चार धाम है:- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री) इसलिए भगवान शिव के अनुयायी और भगवान विष्णु के अनुयायी इसे क्रमशः हरद्वार और हरिद्वार के नाम से पुकारते हैं — हर अर्थात् शिव (केदारनाथ) और हरि अर्थात् विष्णु (बद्रीनाथ) तक जाने का द्वार।












